दानशीलता की भावना



कुपत्रों को धन देना व्यर्थ है| जिसका पेट भरा हुआ हो, उसे और भोजन कराया जाए, तो वह बीमार पड़ेगा और अपने साथ दाता को भी अधोगति के लिए घसीटेगा| भारतीय संस्कृति के अनुसार दान बहुत ही उत्तम धर्म-कार्य है | जो अपनी रोटी दूसरों को बाँटकर ख़ाता है, उसको किसी बात की कमी नही रहेगी | जो अपने पैसे को जोड़-जोड़कर ज़मीन में गाडते हैं, उन पाषाण हृदयों को क्या मालूम कि दान देने मे कितना आत्म-संतोष, कितनी मानसिक तृप्ति मिलती है, आत्मा प्रफुल्लित हो जाती है |


मृत्यु बड़ी बुरी लगती है, पर मौत से बुरी बात यह है कि कोई व्यक्ति दूसरे को दु:खी देखे और उसकी किसी प्रकार भी सहयता करने में अपने आपको असमर्थ पाए | नीति, शास्त्र एक स्वर से कहते हैं कि मनुष्य- जीवन में परोपकार ही सार है | हमें जितना भी संभव हो, सदैव परोपकार में रत रहना चाहिए | यह दान, अभिदान, दंभ, कीर्ति के लिए नहीं, आत्म कल्याण के लिए ही होना चाहिए| मेरे कारण दूसरों का भला हुआ है, यह सोचना उचित नही है | दान देने से स्वयं हमारी ही भलाई होती है, हमें संयम का पाठ मिलता है | यदि आप दान न भी दें, तो भी संसार का काम तो चलता ही रहेगा| परमात्मा इतना विपुल भंडार लूटा रहे हैं कि हमारी छोटी सी सहायता के बिना भी जनता का कार्य चल ही जाएगा, लेकिन आपके हाथ से दूसरों के उपकार को करने का एक अवसर जाता रहेगा|


-- वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पंo श्रीराम भार्मा आचार्य